महामहिम राष्ट्रपतिजी (भारतीय गणतंत्र)
सादर प्रणाम।
दीपावली की अग्रिम शुभकामनाये एवं चरणस्पर्श।
महामहिम राष्ट्रपतिजी, आप भारतीय गणतंत्र के अभिभावक है और मैं आपका एक नागरिक होने के नाते आपका ध्यान पिछले कुछ दिनों से चल रहे विचित्र घटनाक्रमो की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ।
विचित्र इसलिए की ऐसे घटनाक्रम किसी अन्य गणतंत्र में हुए सुने नही और देखे नही।
महामहिम राष्ट्रपतिजी, मैं आपका ध्यान आप ही की उस न्याय प्रणाली और न्यायपालिका के व्यवहार की और आकृष्ट करना चाहता हूँ जिसकी विश्वसनीयता पर पिछले कुछ समय से प्रश्नवाचक चिन्ह लग रहे है।
अत्यंत खेद है कि मुझ भारत जैसे महान देश के नागरिक को न्यायप्रणाली और न्यायपालिका के विषय मे गणतंत्र के मुखिया, प्रथम नागरिक, अभिभावक के समक्ष प्रश्न उपस्थित करना पड़ रहा है।
लेकिन पिछले कुछ घटनाक्रमो ने मुझे विवश किया आप तक इस बात को पहुंचाने के लिए।
महामहिम राष्ट्रपतिजी, किसी भी गणतंत्र की न्याय प्रणाली और न्यायपालिका उस देश के नागरिकों के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों एवं हितों की रक्षा एवं न्यायिक विश्वसनीयता की प्रतिस्थापना के लिए होती है और नागरिक उस न्याय प्रणाली पर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास रखते है।
लेकिन क्या उचित और नैतिक है कि किसी भी गणतंत्र की न्याय प्रणाली एवं न्यायपालिका राष्ट्र के नागरिको में से एक विशिष्ट विचारधारा का तुष्टिकरण करने, उक्त विचारधारा को राजनैतिक और सामाजिक लाभ पहुंचाने और उक्त विचारधारा का ज्ञात अज्ञात रूप से सहयोगी बनते हुए प्रचार प्रसार करें एवं उसके विपरीत देश की मूल विचारधारा के प्रति द्वेष का प्रदर्शन करते हुए उक्त विचारधारा के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करे?
क्या न्यायपालिका की दृष्टि में राष्ट्र के मूल नागरिको के मौलिक अधिकारों का कोई मूल्य नही बचा?
महामहिम राष्ट्रपतिजी मे पिछले कुछ विशिष्ट घटनकर्मो की और आपका ध्यान इस खुले पत्र के माध्यम से आकर्षित करना चाहता हूँ जो कि दूर दूर तक न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रतीत नही होते।
कुछ ही दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय जो कि व्यवहारिक एवं संवैधानिक रूप से आप ही के अधीन है ने पिछले कई वर्षों से लंबित मामला जो करोड़ो हिन्दुओ की आस्था के केंद्र सबरीमाला स्थित भगवान अय्यप्पा के मंदिर में हजारो वर्षो से चली आ रही "हिन्दू पूजा पद्धती" के विषय मे अपना निर्णय सुनाया जिससे करोड़ो हिन्दू भगवान अय्यप्पा भक्त श्रद्धालुओं की आस्था एवं श्रद्धा से सरासर खिलवाड़ है।
इस मामले में महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि किसी भी धर्म की पूजा पद्धति क्या और कैसी हो इसमें न्यायालय का हस्तक्षेप अवांछनीय एवं उक्त धर्म के धर्मावलम्बियों के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन है।
महामहिम राष्ट्रपति जी क्या आपके नागरिको की नित्य जीवन पध्दति, रहन सहन इत्यादि भी न्यायालय द्वारा तय किये जायेंगे?
क्या भविष्य में आपके नागरिक क्या और कैसा भोजन करेंगे, क्या एवं कैसे वस्त्र धारण करेंगे इन सभी विषयों पर भी न्यायालय का हस्तक्षेप होगा?
क्या न्यायालय कुछ लोगो को तथाकथित अधिकार दिलवाने के लिए करोड़ो लोगो के मौलिक अधिकारों का हनन करेगा?
क्या आपके करोड़ो नागरिको के मौलिक अधिकारों का हनन करने की अनुमति आपने अपने न्यायालय को दी है?
क्या न्यायालय किसी नागरिक के प्रतिप्रश्न के प्रति उत्तरदायी नही होना चाहिए?
किसी भी गणतंत्र में गण सर्वोच्च होते हुए भी यहां गण तुच्छ और तंत्र सर्वोच्च प्रतीत होता है।
अभी पिछले दिनों एक और दशकों से लंबित करोड़ो हिन्दुओ की आस्था से जुड़े रामजन्मभूमि मामले में सरकार के जल्द सुनवाई केअनुरोध के बावजूद महीनों से इंतजार के पश्चात न्यायालयीन सुनवाई की तिथि पर छंद पलो में ही न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई प्राथमिकता जे आधार पर अभी नहीं करने का निर्णय सुनाया।
क्या गणतंत्र की आत्मा, संविधान की मूल भावना और करोड़ो धर्मावलम्बियों की आस्था से भी अधिक प्राथमिकता का विषय कोई और हो सकता है?
उपरोक्त मामला करोड़ो की आस्था और भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ है लेकिन न्यायालय को दशकों पश्चात भी यह महत्वपूर्ण नही लगता और यह वही न्यायालय है जो कई आतंकियों एवं राष्ट द्रोहियो के लिए आधी रात को भी अपने द्वार खोलने से नही झिझके थे।
महामहिम राष्ट्रपति जी यदि में ऐसे कई प्रश्न न्यायालय के समक्ष उपस्थित करता हूँ तो इसे न्यायालय मि अवमानना दर्शाते हुए मुझपर न्यायिक कार्यवाही की जा सकती है लेकिन न्यायालय अगर कोई त्रुटिपूर्ण निर्णय करता है तो भी वे सारे प्रश्नों से परे और ऊपर है। क्या यह व्यवहारिक एवं न्यायसंगत है?
क्या गणतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय का भी उत्तरदायित्व तय नही होना चाहिये?
महामहिम राष्ट्रपतिजी
न्यायालय द्वारा दिये गए पिछले कुछ निर्णय न सिर्फ त्रुटिपूर्ण है वरन पक्षपात पूर्ण एवं राजनीति से प्रेरित भी प्रतीत होते है जो कि इस महान राष्ट्र की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे है और भारतीय गणतंत्र की आत्मा एवं करोड़ो नागरिको की आस्था के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
राजनीति से प्रेरित एवं द्वेष की भावना से ग्रसित कुछ न्यायाधीश जिन्हें हम न्यायमूर्ति कहते है वे सम्पूर्ण न्यायपालिका एवं न्यायिक प्रणाली को दूषित और ध्वस्त कर रहे है।
यदि समय रहते इस समस्या की और पूर्ण लक्ष्य केंद्रित कर समाधान नही खोजा गया तो न्याय सम्पन्न भारत भूमि न्याय विहीन पक्षपात ग्रसित एवं दूषित न्याय व्यवस्था की गिरफ्त में आ जाएगी।
समस्या अति विकट है
शिघ्र समाधान की आवश्यकता है
महामहिम राष्ट्रपतिजी मैं आपका एक सामान्य नागरिक आपसे सविनय करबद्ध प्रार्थना है एक अभिभावक के रूप में आप इस विषय मे स्वयमस्फूर्त अपने विशेषाधिकार सहित हस्तक्षेप कर शीघ्रातिशीघ्र समाधान कर न्यायिक प्रक्रिया, न्याय प्रणाली एवं न्यायालय इत्यादि में यथोचित सुधार करने की प्रक्रिया के आदेश प्रदान करे और न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर अवांछित हस्तक्षेप ना करें ऐसी सचारु एवं संसोधित कार्यप्रणाली की व्यवस्था के भी आदेश प्रदान करें।
मैं आपके एक सामान्य नागरिक के नाते आप इस राष्ट्र के अभिभावक के समक्ष करबद्ध एवं सविनय प्रार्थना कर रहा हूँ कि आप शीघ्रातिशीघ्र इस विषय मे संज्ञान लें।
उपरोक्त एवं ऐसे ही अनेक घटनाक्रमों से करोड़ो नागरिको की भांति मैं भी क्रोधित हूँ एवं इसी आवेश के आवेग में यदि मर्यादा की अवहेलना हुई हो तो करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ।
उचित एवं शीघ्र न्याय की अपेक्षा एवं विश्वास
प्रणाम।
आपका
एक नागरिक
अरविंद लोढ़ा